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Wednesday, August 22

तानसेन

संगीत सम्राट् तानसेन (जन्म- संवत 1563, बेहट ग्राम; मृत्यु- संवत 1646) की गणना भारत के महान गायकों, मुग़ल संगीत के संगीतकारों एवं बेहतरीन संगीतज्ञों में की जाती है। तानसेन का नाम अकबर के प्रमुख संगीतज्ञों की सूची में सर्वोपरि है। तानसेन दरबारी कलाकारों का मुखिया और समाट् के नवरत्नों में से एक था। इस पर भी उसका प्रामाणिक जीवन-वृत्तांत अज्ञात है। यद्यपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परंतु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय है। उसके जीवन की अधिकांश घटनाएँ किंवदंतियों एवं अनुश्रुतियों पर आधारित हैं। प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त स्वामी हरिदास इनके दीक्षा-गुरु कहे जाते हैं। "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" में सूर से इनके भेंट का उल्लेख हुआ है। "दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता" में गोसाई विट्ठलनाथ से भी इनके भेंट करने की चर्चा मिलती है।

जीवन परिचय

तानसेन की जीवनी के सम्बन्ध में बहुत कम ऐसा वृत्त ज्ञात है, जिसे पूर्ण प्रामाणिक कहा जा सके। भारतीय संगीत के प्रसिद्ध गायक तानसेन का जन्म मुहम्मद ग़ौस नामक एक सिद्ध फ़क़ीर के आशीर्वाद से ग्वालियर से सात मील दूर एक छोटे-से गाँव बेहट में संवत 1563 में वहाँ के एक ब्राह्मण कुल में हुआ था।[2] इनके पिता का नाम मकरंद पांडे था। पांडित्य और संगीत-विद्या में लोकप्रिय होने के साथ-साथ मकरंद पांडे को धन-धान्य भी यथेष्ट रूप से प्राप्त था। तानसेन की माता पूर्ण साध्वी व कर्मनिष्ठ थीं। तानसेन का पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से हुआ। एकमात्र संतान होने के कारण इनके माँ-बाप ने किसी प्रकार का कठोर नियंत्रण भी नहीं रखा।

मूल नाम

तानसेन का मूल नाम क्या था, यह निश्चय पूर्वक कहना कठिन है, किंवदंतियों के अनुसार उन्हें तन्ना, त्रिलोचन, तनसुख, अथवा रामतनु बतालाया जाता है। तानसेन इनाका नाम नहीं इनकी उपाधि थी, जो तानसेन को बांधवगढ़ के राजा रामचंद्र से प्राप्त हुई थी। वह उपाधि इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसने इनके मूल नाम को ही लुप्त कर दिया। इनका जन्म-संवत् भी विवादग्रस्त है। हिन्दी साहित्य में इनके जन्म की संवत 1588 की प्रसिद्धि है किंतु कुछ विद्वानों ने संवत 1563 माना है।[3] तानसेन के मधुर कंठ और गायन शैली की ख्याति सुनकर 1562 ई. के लगभग अकबर ने उन्हें अपने दरबार में बुला लिया। अबुल फ़जल ने 'आइना-ए-अकबरी' में लिखा है कि अकबर ने जब पहली बार तानसेन का गाना सुना तो प्रसन्न होकर पुरस्कार में दो लाख टके दिए। तानसेन के कई पुत्र थे, और एक पुत्री थी। पुत्रों में तानतरंग ख़ाँ, सुरतिसेन और विलास ख़ाँ के नाम प्रसिद्ध हैं। उनके पुत्रों एवं शिष्यों के द्वारा "हिन्दुस्तानी संगीत" की बड़ी उन्नति हुई थी।

संगीत शिक्षा

तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहाँ पर बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। तानसेन को संगीत की शिक्षा ग्वालियर में वहाँ के कलाविद् राजा मानसिंह तोमर के किसी विख्यात संगीताचार्य से प्राप्त हुई थी। गौस मुहम्मद को उसका संगीत-गुरु बतलाना अप्रमाणित सिद्ध हो गया है। उस सूफी संत के प्रति इनकी श्रद्धा भावना रही हो, यह संभव जान पड़ता है।
ग्वालियर राज्य का पतन हो जाने पर वहाँ के संगीताचार्यों की मंडली बिखरने लगी थी। उस परिस्थिति में तानसेन को ग्वालियर में उच्च शिक्षा प्राप्त करना संभव ज्ञात नहीं हुआ। वह वृंदावन चले गए थे, जहाँ उसने संभवतः स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। वल्लभ संप्रदायी वार्ता के अनुसार तानसेन ने अपने उत्तर जीवन में अष्टछाप के संगीताचार्या गोविंदस्वामी से भी कीर्तन पद्धति का गायन सीखा था।[4]

रचनाएँ

नये रागों का आविष्कार

तानसेन ग्वालियर परंपरा की मूर्च्छना पद्धति के एवं ध्रुपद शैली के विख्यात गायक और कई रागों के विशेषज्ञ थे। इनको ब्रज की कीर्तन पद्धति का भी पर्याप्त ज्ञात था। साथ ही वह ईरानी संगीत की मुकाम पद्धति से भी परिचित थे। उन सब के समंवय से उसने अनेक नये रागों का आविष्कार किया था, जिनमें "मियाँ की मलार" अधिक प्रसिद्ध है। तानसेन के गायन की प्रशंसा में कई चमत्कारपूर्ण किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, किंतु उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

ध्रुपदों की रचना

तानसेन गायक होने के साथ ही कवि भी थे। उसने अपने गान के लिए स्वयं बहुसंख्यक ध्रुपदों की रचना की थी। उनमें से अनेक ध्रुपद संगीत के विविध ग्रंथों में और कलावंतों के पुराने घरानों में सुरक्षित हैं। तानसेन के नाम से "संगीत-सार और "राग-माला" नामक दो ग्रंथ भी मिलते हैं[5]
ग्रंथ "संगीत-सम्राट तानसेन" में उसके रचे हुए 288 ध्रुपदों का संकलन है। ये ध्रुपद विविध विषयों से संबंधित हैं। इसके अतिरिक्त उनके ग्रंथ "संगतिदार" और "रागमाला" भी संकलित हैं। यहाँ पर तानसेन कृत "कृष्ण लीला" के कुछ ध्रुपद उदाहरणार्था प्रस्तुत हैं-
पलना-झूलन-
हमारे लला के सुरंग खिलौना, खेलत, खेलत कृष्ण कन्हैया।
अगर-चंदन कौ पलना बन्यौ है, हीरा-लाल-जवाहर जड़ैया॥
भँवरी-भँवरा, चट्टा-बट्टा, हंस-चकोर, अरू मोर-चिरैया॥
तानसेन प्रभु जसोमति झुलावै, दोऊ कर लेत बलैया।
गो-चारन-
धौरी-ध्रुमर, पीयरी-काजर कहि-कहि टेंरै।
मोर मुकट सीस, स्त्रवन कुंडल कटि में पीतांबर पहिरै॥ ग्वाल-बाल सब सखा संग के, लै आवत ब्रज नैरै।
"तानसेन" प्रभु मुख रज लपटानी जसुमति निरखि मुख है रै।
आजु हरि लियै अनहिली गैया, एक ही लकुटि सों हाँकी॥
ज्यों-ज्यों रोकी मोहन तुम सोई, त्यों-त्यों अनुराग हियं देखत मुखां की।
हम जो मनावत कहूँ तूम मानत, वे बतियाँ गढ़ि बॉकी॥
तृन नहीं चरत, बछरा नहीं चौखत की,
हम कहा जानै, को है कहाँ की।
तानसेन प्रभु वेगि दरस दीजै सब मंतर पढ़ि आँकी॥[6]
प्रथम उठ भोरही राधे-किशन कहो मन, जासों होवै सब सिद्ध काज।
इहि लोक परलोक के स्वामी, ध्यान धरौ ब्रजराज॥
पतित उद्धारन जन प्रतिपालन, दीनदयाल नाम लेत जाय दुख भाज।
"तानसेन" प्रभु कों सुमरों प्रातहिं, जग में रहै तेरी लाज॥
मुरली बजावै, आपन गावै, नैन न्यारे नंचावै, तियन के मन कों रिझावै।
दूर-दूर आवै पनघट, काहु के धटन दुरावै, रसना प्रेम जनावै॥
मोहिनी मूरत, सांवती सूरत, देखत ही मन ललचावै।
"तानसेन" के प्रभु तुम बहुनायक, सबहिंन के मन भावै॥

चमत्कारी घटनाएँ

यह कहा जाता है कि तानसेन के जीवन में पानी बरसाने, जंगली पशुओं को मंत्र- मुग्ध करने तथा रोगियों को ठीक करने आदि की अनेक संगीत-प्रधान चमत्कारी घटनाएँ हुईं। यह निर्विवाद सत्य है कि गुरु-कृपा से उन्हें बहुत-सी राग-रागनियाँ सिद्ध थीं। और उस समय देश में तानसेन जैसा दूसरा कोई संगीतज्ञ नहीं था। तानसेन ने व्यक्तिगत रूप से कई रागों का निर्माण भी किया, जिनमें दरबारी कान्हड़ा, मियाँ की सारंग मियाँमल्लार आदि उल्लेखनीय हैं।

 
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